
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का मंगलवार को निधन हो गया. वह 95 वर्ष के थे. पीटीआई के मुताबिक शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के वरिष्ठ नेता को सांस लेने में परेशानी होने की शिकायत के बाद एक हफ्ते पहले मोहाली में फोर्टिस अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहा उन्होंने अपनी अंतिम सास ली.
प्रकाश सिंह बादल के बारे में जान लीजिए : प्रकाश सिंह बादल के निधन से पंजाब की राजनीति का एक बड़ा अध्याय खत्म हो गया है। 95 साल की उम्र तक सियासत में सक्रिय रहने के कारण उन्हें राजनीति का बाबा बोहड़ (दिग्गज) कहा जाता था। उन्होंने 20 साल की उम्र में 1947 में सरपंच का चुनाव जीतकर अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था। इसके बाद वह पांच बार पंजाब के मुख्यमंत्री बने।
खास बात यह है सबसे कम उम्र में पंजाब का सीएम बनने और सबसे अधिक उम्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का रिकॉर्ड भी उनके नाम है। प्रकाश सिंह बादल 1970 में जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो 43 साल के बादल देश में सबसे कम उम्र यानी किसी राज्य के मुख्यमंत्री थे।
2012 में जब वह पांचवीं बार मुख्यमंत्री बने तो वह देश के सबसे उम्रदराज मुख्यमंत्री बने और अब 2022 के चुनावी मैदान में उतरे तो सबसे ज्यादा उम्र के प्रत्याशी थे। बादल 10 बार विधानसभा तक पहुंचे। राजनीति के हर दांव पेच के माहिर प्रकाश सिंह बादल ने अपने जीवन के अधिकतर विधानसभा चुनाव मुक्तसर की लंबी सीट से लड़े।
1957 में वह पहली बार पंजाब विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए। 1969 में प्रकाश सिंह बादल फिर से विधानसभा के लिए चुने गए और गुरनाम सिंह की सरकार में उन्हें सामुदायिक विकास, पंचायती राज, पशु पालन, डेरी और मत्स्य पालन मंत्रालय का कार्यभार दिया गया।
अलगाववाद से अलग रहे प्रकाश सिंह बादल : समय-समय पर बादल ने थोड़े बहुत शब्दों में खालिस्तान की चर्चा भले की हो, लेकिन उनकी राजनीति अलगाववाद की तरफ कभी नहीं बढ़ी. यही वजह रही कि 1997 और 1999 में राज्य की राजनीति के साथ ही एसजीपीसी पर पूरा कब्जा करनेवाले बादल ने उन समहूों की बात पर कान नहीं दिया, जो 1984 के दंगों के दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते रहे. बादल की इस अनदेखी ने ही राज्य में अमरिंदर सिंह को पनपने का मौका दिया, भले ही वह कांग्रेस से थे और कांग्रेस के दामन पर 1984 दंगों के दाग थे. बादल तब भी सुर्खियों में आए, जब 2012 में उनकी सत्ता में वापसी के बाद एसजीपीसी ने भिंडरावाले और उस जैसे दूसरों का स्मारक बनाने की इजाजत दी. तभी बादल पर सिख अलगाववादियों पर नरमी बरतने का भी आरोप लगा. हालांकि, 2015 में पंजाब में जो बेअदबी की घटनाएं हुईं, उसके बाद से बादल की पकड़ और ढीली ही पड़ती चली गई. इस बीच 1997 से लगातार एक साथ रहनेवाली भाजपा के साथ भी 2020 में शिरोमणि अकाली दल ने किनारा कर लिया. बहाना किसान कानूनों का था. बादल ने स्वर्णमंदिर में सेवा कर बेअदबी का प्रायश्चित करने का भी प्रस्ताव दिया, लेकिन 2022 में उनको अब तक की सबसे शर्मनाक हार झेलनी पड़ी.
फिलहाल, अकाली दल को अपने भीष्म पितामह की कमी तो खूब खलेगी, खासकर जब राज्य में वह अपने सबसे शर्मनाक प्रदर्शन से गुजर रही है. प्रकाश सिंह बादल को अगर अटल बिहारी वाजपेयी के शब्द उधार लेकर कहें तो वह विरोधों का समन्वय थे. वह जनसंघ के साथ रहे, पंजाब में विभिन्न ताकतों के बीच संतुलन बनाकर रहे, खालिस्तानी आंदोलन को सिर नहीं उठाने दिया और आज जब वह गए हैं तो सारे दलों के नेता एक सुर में इस बुजुर्ग अभिभावक को नम आंखों से याद कर रहे हैं. यही बादल की थाती भी थी और खासियत भी.